दधीचि पुत्र ‘पिप्पलाद’
पिप्पलाद महर्षि दधीचि के पुत्र थे. ‘पिप्पलाद’ का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘पीपल के पेड़ के पत्ते खाकर जीवित रहने वाला. ‘ संस्कृत वाक्य कोश के प्रणेता डॉक्टर श्रीधर भास्कर वर्णेकर के अनुसार पिप्पलाद उच्च कोटि के एक ऋषि थे. देवताओं और दानवों के बीच हुए युद्ध के पश्चात पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहाँ पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धारा छोड़ी थी. अत: उस स्थान को ‘दुग्धेश्वर’ कहा जाने लगा. पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे, इसलिए उसे ‘पिप्पलाद तीर्थ’ भी कहते हैं.
पिप्पलाद ऋषि कौन थे ?
पिप्पलाद
ऋषि का शनिदेव से क्या संबंध है ?
श्मशान
में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति
का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि
दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास
से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।
जब कोई
वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा।
कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण
सुरक्षित रहा।
एक दिन
देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय
पूंछा-
नारद-
बालक तुम कौन हो ?
बालक-
यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद-
तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही
तो मैं जानना चाहता हूँ ।
तब नारद
ने ध्यान धर देखा।नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि
दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों
पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की आयु में ही हो गयी थी।
बालक-
मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद-
तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक-
मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद-
शनिदेव की महादशा।
इतना
बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम
पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के
जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर
उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो
पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।ब्रह्मा
जी से वर मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख
प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।शनिदेव सशरीर जलने
लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो
गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से
बचाने हेतु विनय करने लगे।अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और
शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले
दो वर मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और
बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
2- मुझ अनाथ को शरण
पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल
चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा
जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से
उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त
हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति
य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो
गए। सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु
है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी
ज्ञान का वृहद भंडार है ।
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