G-B7QRPMNW6J Manan Karne Yogya Katha Raja Dilip: गौ भक्त राजर्षि दिलीप की कथा
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Manan Karne Yogya Katha Raja Dilip: गौ भक्त राजर्षि दिलीप की कथा

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Manan karne yogya Katha Raja Dilip The story of cow devotee Rajarshi Dilip
Manan Karne Yogya Katha Raja Dilip The story of cow devotee Rajarshi Dilip

 

MananKarneYogyaKathaRajaDilip गौ भक्त राजर्षि दिलीप की कथा :

🍁गौ भक्त राजर्षि दिलीप की कथा!🍁

शास्त्रो में राजा को भगवान् की विभूति माना गया है। साधारण व्यक्ति से श्रेष्ट राजा को माना जाता है, राजाओ में भी श्रेष्ट सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को और अधिक श्रेष्ट माना गया है। ऐसे ही पृथ्वी के एकछत्र सम्राट सूर्यवंशी राजर्षि दिलीप एक महान गौ भक्त हुऐ।

महाराज दिलीप और देवराज इन्द्र में मित्रता थी । देवराज के बुलाने पर दिलीप एक बार स्वर्ग गये । देव असुर संग्राम में देवराज ने महाराज दिलीप से सहायता मांगी। राजा दिलीप ने सहायता करने के लिए हाँ कर दी और देव असुर युद्ध हुआ।

युद्ध समाप्त होने पर स्वर्ग से लौटते समय मार्ग में कामधेनु सुरभि मिली, किंतु दिलीप ने पृथ्वी पर आने की आतुरता के कारण उसे देखा नहीं। कामधेनु सुरभि को उन्होंने प्रणाम नहीं किया, न ही प्रदक्षिणा की।

इस अपमान से रुष्ट होकर कामधेनु सुरभि ने शाप दिया- मेरी संतान (नंदिनी) यदि कृपा न करे तो यह पुत्रहीन ही रहेगा ।

महाराज दिलीप को शाप का कुछ पता नहीं था । किंतु उनके कोई पुत्र न होने से वे स्वयं, महारानी तथा प्रजा के लोग भी चिन्तित एवं दुखी रहते थे । पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महाराज दिलीप रानी के साथ कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुंचे।

महर्षि सब कुछ समझ गए। महर्षि ने कहा यह गौमाता के अपमान के पाप का फल है। "सुरभि गौमाता" की पुत्री "नंदिनी गाय" हमारे आश्रम पर विराजती है। महर्षि ने आदेश दिया- कुछ काल आश्रम में रहो और मेरी कामधेनु नन्दिनी की सेवा करो।

महाराज ने गुरु की आज्ञा स्वीकार कर ली। महारानी सुदक्षिणा प्रात: काल उस गौमाता की भलीभाँति पूजा करती थी। आरती उतारकर नन्दिनी को पति के संरक्षण-में वन में चरने के लिये विदा करती। सम्राट दिनभर छाया की भाँती उसका अनुगमन करते, उसके ठहरने पर ठहरते, चलने पर चलते, बैठने पर बैठते और जल पीने पर जल पीते।

संध्या काल में जब सम्राट के आगे-आगे सद्य: प्रसूता, बालवत्सा (छोटे दुध मुँहे बछड़े वाली) नन्दिनी आश्रम को लौटती तो महारानी देवी सुदक्षिणा हाथ में अक्षत-पात्र लेकर उसकी प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करतीं और अक्षत आदि से पुत्र प्राप्ति रूप अभीष्ट-सिद्धि देनेवाली उस नन्दिनी का विधिवत् पूजन करतीं ।

अपने बछड़े को यथेच्छ पय:पान (दूध पान) कराने के बाद दुह ली जाने पर नन्दिनी की रात्रि में दम्पति पुन: परिचर्या करते, अपने हाथों से कोमल हरित शष्प-कवल खिलाकर उसकी परितृप्ति करते और उसके विश्राम करने पर शयन करते । इस तरह उसकी परिचर्या करते इक्कीस दिन बीत गये।

एक दिन वन में नन्दिनी का अनुराग करते महाराज दिलीप की दृष्टि क्षणभर अरण्य (वन) की प्राकृतिक सुंदरता में अटक गयी कि तभी उन्हें नन्दिनी का आर्तनाद सुनायी दिया ।

वह एक भयानक सिंह के पंजों में फँसी छटपटा रही थी। उन्होंने आक्रामक सिंह को मारने के लिये अपने तरकश से तीर निकालना चाहा, किंतु उनका हाथ जडवत् निश्चेष्ट होकर वहीं अटक गया, वे चित्रलिखे से खड़े रह गये और भीतर ही भीतर छटपटाने लगे,

तभी मनुष्य की वाणी में सिंह बोल उठा- राजन्! तुम्हारे शस्त्र संधान का श्रम उसी तरह व्यर्थ है जैसे वृक्षों को उखाड़ देनेवाला प्रभंजन पर्वत से टकराकर व्यर्थ हो जाता है । मैं भगवान् शिव के गण निकुम्भ का मित्र कुम्भोदर हूं ।

भगवान् शिव ने सिंहवृत्ति देकर मुझे हाथी आदि से इस वन के देव दारुओ की रक्षा का भार सौंपा है । इस समय जो भी जीव सर्वप्रथम मेरे दृष्टि पथ में आता है वह मेरा भक्ष्य बन जाता है। इस गाय ने इस संरक्षित वन में प्रवेश करने की अनधिकार चेष्टा की है और मेरे भोजन की वेला मे यह मेरे सम्मुख आयी है, अत: मैं इसे खाकर अपनी क्षुधा शान्त करूँगा । तुम लज्जा और ग्लानि छोड़कर वापस लौट जाओ ।

किंतु परदु:ख कातर दिलीप भय और व्यथा से छटपटाती, नेत्रोंबसे अविरल अश्रुधारा बहाती नन्दिनी को देखकर और उस संध्याकाल मे अपनी माँ की उत्कण्ठा से प्रतीक्षा करने वाले उसके दुधमुँहे बछड़े का स्मरण कर करुणा-विगलित हो

उठे। नन्दिनी का मातृत्व उन्हें अपने जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान् जान पड़ा और उन्होंने सिंह से प्रार्थना की कि वह उनके शरीर को खाकर अपनी भूख मिटाओ और बालवत्सा नन्दिनी को छोड़ दे।

सिंह ने राजा के इस अदभुत प्रस्ताव का उपहास करते हुए कहा- राजन्! तुम चक्रवर्ती सम्राट  हो। गुरु को नन्दिनी के बदले करोडों दुधार गौएँ देकर प्रसन्न कर सकते हो। अभी तुम युवा हो, इस तुच्छ प्राणी के लिये अपने स्वस्थ-सुन्दर शरीर और यौवन की अवहेलना कर जान की बाजी लगाने वाले स्रम्राट।

लगता है, तुम अपना विवेक खो बैठे हो। यदि प्राणियों पर दया करने का तुम्हारा व्रत ही है तो भी आज यदि इस गाय के बदले में मैं तुम्हें खा लूँगा तो तुम्हारे मर जाने पर केवल इसकी ही विपत्तियों से रक्षा हो सकेगी और यदि तुम जीवित रहे तो पिता की भाँती सम्पूर्ण प्रजा की निरन्तर विपत्तियों से रक्षा करते रहोगे

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