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भगवा वस्त्र कौन धारण कर सकता है?

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 भगवा वस्त्र कौन धारण कर सकता है?

भगवा वस्त्र धारण करने का अधिकार केवल जिन्होंने विधिवत‌संन्यास‌ लिया है उन्हे है. अपने कर्तव्य पूर्ण करने के बाद संन्यास आश्रम‌ है. या जिन्हे संसारके प्रति मोह माया बची नहीं है और पूर्ण वैराग्य प्राप्त हुआ है उन्हे नियमपूर्वक दीक्षा मिलनेके बाद भगवे वस्त्र पहननेका अधिकार है. कोई भी भगवा वस्त्र धारण कर सकता है

भगवा वस्त्र कौन धारण कर सकता है?
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1.गेरू और भगवा रंग एक ही है, लेकिन केसरिया में मामूली-सा अंतर है। स्वयंभू संन्यासी जब ये रंग पहनता है तो यह धर्म का अपमान समझें, लेकिन किसी अखाड़े या हिन्दू संन्यासी संप्रदाय की संन्यासी परंपरा में दीक्षित होकर साधना करके भगवा रंग पहनता है तो वह सचमुच ही संन्यासी होता है। ऐसा संन्यासी जिसने धर्म, देश या मोक्ष के लिए अपना परिवार और सुख सबकुछ छोड़ दिया और ब्रह्मचर्य को धारण कर लिया है।

2.हिन्दू धर्म में भगवा, केसरिया, लाल और पीले रंग का अलग-अलग महत्व है। रंगों से आप जान सकते हैं कि कौन सा संन्यासी क्या है। केसरिया रंग त्याग, बलिदान, ज्ञान, शुद्धता एवं सेवा का प्रतीक है। सनातन धर्म में केसरिया रंग उन साधु-संन्यासियों द्वारा धारण किया जाता है, जो मुमुक्षु होकर मोक्ष के मार्ग पर चलने लिए कृतसंकल्प होते हैं।

ऐसे संन्यासी खुद और अपने परिवारों के सदस्यों का पिंडदान करके सभी तरह की मोह-माया त्यागकर आश्रम में रहते हैं। भगवा वस्त्र को संयम, संकल्प और आत्मनियंत्रण का भी प्रतीक माना गया है।

3.साधुओं में महंत का पद सबसे बड़ा होता है। महंत बनना असान नहीं होता यह बहुत कठिन साधना, समर्पण, सेवा और शिव एवं गुरु भक्ति के बाद प्राप्त होता है। लाखों संन्यासियों में से कोई एक महंत बनता है। हिन्दु सन्यासियों के 13 अखाड़े और दसनामी संप्रदाय है। सभी में महंत बनाने की प्रक्रिया अलग अलग होती है। दसनामियों से अलग नाथ संप्रदाय को देश का सबसे बड़ा संप्रदाय माना जाता है जिसके महंत है योगी आदित्यनाथ।

4.कैसे बने नाथ : भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। भगवान शंकर के बाद इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम भगवान दत्तात्रेय का आता है। उन्होंने वैष्णव और शैव परंपरा में समन्वय स्थापित करने का कार्य किया। दत्तात्रेय को महाराष्ट्र में नाथ परंपरा का विकास करने का श्रेय जाता है। दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है।

5. भगवान दत्तात्रेय के बाद सिद्ध संत गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने 'नाथ' परंपरा को फिर से संगठित करके पुन: उसकी धारा अबाध गति से प्रवाहित करने का कार्य किया। चौरासी नाथों की परंपरा में सबसे प्रमुख हैं। उन्हें बंगाल, नेपाल, असम, तिब्बत और बर्मा में खासकर पूजा जाता है।

6. गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के बाद उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ ने शैव धर्म की सभी प्रचलित धारणाओं और धाराओं को एकजुट करने 'नाथ' परंपरा को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उनके लाखों शिष्यों में हजारों उनके जैसे ही सिद्ध होते थे।

7. इसके अलावा 'नाथ' साधुओं में प्रमुख नाम है- भर्तृहरि नाथ, नागनाथ, चर्पटनाथ, रेवणनाथ, कनीफनाथ, जालंधरनाथ, कृष्णपाद, बालक गहिनीनाथ योगी, गोगादेव, रामदेव, सांईंनाथ आदि।

8. गोरखनाथ के संप्रदाय की मुख्य 12 शाखाएं- 1. भुज के कंठरनाथ, 2. पागलनाथ, 3. रावल, 4. पंख या पंक, 5. वन, 6. गोपाल या राम, 7. चांदनाथ कपिलानी, 8. हेठनाथ, 9. आई पंथ, 10. वेराग पंथ, 11. जैपुर के पावनाथ और 12. घजनाथ।

9. महार्णव तंत्र में कहा गया है कि नवनाथ ही 'नाथ' संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। नवनाथों की सूची अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग मिलती है। यथाक्रम- मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, गहनिनाथ, जालंधरनाथ, कृष्णपाद, भर्तृहरिनाथ, रेवणनाथ, नागनाथ, चर्पटनाथ।

10.वर्तमान में गोरखनाथ संप्रदाय की संपूर्ण शाखाओं के प्रमुख कई महान संत हैं। उक्त सभी संप्रदाय और शाखाओं के संत गुरु गोरखनाथ पीठ से जुड़े हुए हैं जिनके महंत हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिन्हें अब महंत आदित्यनाथ कहा जाता है।

आज्ञा चक्र का रंग गेरुआ है

एक और बात है और वह यह कि हर चक्र का एक रंग होता है। हमारे शरीर में मौजूद सातों चक्रों का अपना एक अलग रंग है। भगवा या गेरुआ रंग आज्ञा चक्र का रंग है और आज्ञा ज्ञान-प्राप्ति का सूचक है।

चूंकि आप एक खास किस्म के वस्त्र पहने हैं, इसलिए उन्हें पता है कि उस तरह की बातें आपसे नहीं करनी हैं। तो इस तरह दुनिया से आपको मदद मिलती है।

तो जो लोग आध्यात्मिक पथ पर होते हैं, वे उच्चतम चक्र तक पहुंचना चाहते हैं इसलिए वे इस रंग को पहनते हैं। साथ ही आपके आभमंडल का जो काला हिस्सा होता है, उसका भी इस रंग से शु़द्धीकरण हो जाता है।

नारंगी रंग पकने का भी सूचक है। प्रकृति में जो भी चीज पकती है, वह आमतौर पर नारंगी रंग की हो जाती है। यानी अगर कोई व्यक्ति परिपक्वता और समझदारी के एक खास स्तर तक पहुंच गया है तो उसका मतलब है कि उसका रंग नारंगी हो गया। नारंगी रंग एक नई शुरुआत और परिपक्वता का सूचक है। यह आपके आभामंडल और आज्ञा चक्र से भी जुड़ा है, यह ज्ञान का भी सूचक है और यह भी बताता है कि इस इंसान ने एक नई दृष्टि विकसित कर ली है। जिसने नई दृष्टि विकसित कर ली, उसके लिए भी और जो विकसित करना चाहता है, उसके लिए भी नारंगी रंग पहनना अच्छा है।

अष्टादश (18) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद ’यदि आपकी कोई यह कुण्डी फोड़ दे, त्रिदण्ड उठा ले जाय और ये वस्त्र भी चुरा ले जाय तो उस समय आपके मनकी कैसी अवस्था होगी? ’यदि सब कुछ छोड़कर भी आप मुट्ठीभर जौ के लिये दूसरों की कृपा चाहते हैं तो राज्य आदि अन्य सब वस्तुएं भी तो इसी के समान हैं, फिर उस राज्य के त्याग की क्या विशेषता रही? ’यदि यहा मुट्ठीभर जौ की आवश्यकता बनी ही रह गयी तो सब कुछ त्याग देने की जो आपने प्रतिज्ञा की थी, वह नष्ट हो गयी। (सर्वत्यागी हो जाने पर ) मैं आपकी कौन हॅू और आप मेरे कौन हैं तथा आपका मुझ पर अनुग्रह भी क्या है? ’राजन्! यदि आपका मुझ पर अनुग्रह हो तो इस पृथ्वी का शासन कीजिये और राजमहल, शरूया, सवारी, वस्त्र तथा आभूषणों को भी उपयोग में लाइये। ’श्रीहीन, निर्धन, मित्रों द्वारा त्यागे हूए, अकिंचन एवं सुख की अभिलाषा रखने वाले लोगों की भाति सब प्रकार से परिपूर्ण राजलक्ष्मी का जो परित्याग करता है उससे उसे क्या लाभ? ’ जो बराबर दूसरों से दान लेता (भिक्षा ग्रहण करता) तथा जो निरन्तर स्वयं ही दान करता रहता ह, उन दोनों में क्या अन्तर है और उनमें से किसको श्रेष्ठ कहा जाता है? यह आप समझिये। ’सदा ही याचना करने वाले को और दम्भी को दी हुई। दक्षिणा दावानल में दी गयी आहुति के समान व्यर्थ है। ’राजन्! जैसे आग लकड़ी को जलाये बिना नहीं बुझती, उसी प्रकार सदा ही याचना करने वाला ब्राह्मण(याचना का अन्त किये बिना) कभी शान्त नहीं हो सकता। ’ इस संसार में दाता का अन्न ही साधु-पुरुषों की जीविका का निश्चित आधार है। यदि इन दान करने वाला राजा न हो तो मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले साधु-संन्यासी कैसे जी सकते हैं? ’ इस जगत् में अन्न से गृहस्थ और गृहस्थों से भिक्षुओं का निर्वाह होता है। अन्न से प्राणशक्ति प्रकट होती है; अतः अन्नदाता प्राणदाता होता है। ’जितेन्द्रिय संन्यासी गृहस्थी- आश्रम से अलग होकर भी गृहस्थों के ही सहारे जीवन धारण करते हैं। वहीं से वह प्रकट होते हैं और वहीं उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ’केवल त्याग से, मूढ़ता से और याचना करने से किसी को भिक्षु नहीं समझना चाहिये। जो सरल भाव से स्वार्थ का त्याग करत है और सुख में आसक्त नहीं होता, उसे ही भिक्षु समझिये। ’पृथ्वीनाथ! जो आसक्तिरहित होकर आसक्त की भाति विचरता है, जो संगरहित एवं सब प्रकार के बन्धनों को तोड़ चुका है तथा शत्रु और मित्र में जिसका समान भाव है, वह सदा मुक्त ही है। ’बहुत - से मनुष्य दान लेने (पेट पालने) के लिये मूड़ मुड़ाकर गेरूए वस्त्र पहन लेते हैं और घर से निकल जाते हैं। वे नाना प्रकार के बन्धनों में बॅधे होने के कारण व्यर्थ भोगों की ही खोज करते रहते हैं। ’बहुत से मुर्ख मनुष्य तीनों वेदों के अध्ययन, इीनमें बताये गये कर्म, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य तथा अपने पुत्रों का परित्याग करके चल देते हैं और त्रिदण्ड एवं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं। ’ यदि हृदय का कषाय (राग आदि दोष) दूर न हुआ तो तो काषाय (गेरूआ) वस्त्र धारण करना स्वार्थ- साधना की चेष्टा के लिये ही समझना चाहिये। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि धर्म का ढोंग रखने वाले मथमुड़ों के लिये यह जीविका चलाने का एक धंधा मात्र है।’

अष्टादश (18) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 35-40 का हिन्दी अनुवाद महाराज! आप तो जितेन्द्रिय होकर नंगे रहने वाले, मूड़ मुड़ाने और जटा रखाने वाले साधुओं का गेरूआ वस्त्र, मृगचर्म एवं वल्कल वस्त्रों के द्वारा भरण-पोषण करते हुए पुण्य लोकों पर विजय प्राप्त कीजिये। ’ जो प्रतिदिन पहले गुरू के लिये अग्निहोत्रार्थ समिघा लाता है; फिर उत्तम दक्षिणाओं से युक्त यज्ञ एवं दान करता रहता है, उससे बढ़कर धर्मपरायण कौन होगा? अर्जुन कहते हैं- महाराज! राजा जनक को इस जगत् में ’तत्वज्ञ’ कहा जाता है; किंतु वे भी मोह में पड़ गये थे। (रानी ने इस तरह समझाने पर राजा ने संन्यास का विचार छोड़ दिया । अतः) आप भी मोह के वशीभूत न होइये। यदि हम लोग सदा दान और तपस्या में तत्पर हो इसी प्रकार धर्म का अनुसरण करेंगे, दया आदि गुणों से सम्पन्न रहेंगे, कामक्रोध आदि दोषों को त्याग देंगे, उत्तम दान धर्म का आश्रय ले प्रजापालन में लगे रहेंगे तथा गुरूजनों और वृद्ध पुरुषों की सेवा करते रहेंगे तो हम अपने अभीष्ट लोक प्राप्त कर लेंगे। इसी प्रकार देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों को विधि पूर्वक उनका भाग अर्पण करते हुए यदि हमब्राह्मणभक्त और सत्यवादी बने रहेंगे तो हमें अभीष्ट स्थान की प्राप्ति अवश्य होगी। इस प्रकार श्रीमहाभारते शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में अर्जुन का वाक्य विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Read more at: महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 18 श्लोक 35-40 | भारतकोश
साभार http://bhartdiscovery.org


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