G-B7QRPMNW6J Gandmool Dosh: जन्म के बाद कैसे होता है जन्म कुंडली में इसकी शांति के उपाय
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Gandmool Dosh: जन्म के बाद कैसे होता है जन्म कुंडली में इसकी शांति के उपाय

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Gandmool Dosh: जन्म के बाद कैसे होता है जन्म कुंडली में इसकी शांति के उपाय 

गंडमूल दोष: जन्म के बाद कैसे होता है जन्म कुंडली में इसकी शांति के उपाय
गंडमूल दोष: जन्म के बाद कैसे होता है जन्म कुंडली में इसकी शांति के उपा


गण्डमूल / मूल  नक्षत्र  :

इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !

१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल  यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !

इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल !

मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है ;
बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो 

शांति
करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !

यदि जातक के जन्म के समय चद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !

जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है 

दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर संधि होती है

और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन  का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है ; और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली  कहते है !

इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है - जिसका सीधा सा अर्थ है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !

संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है ! संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !

गण्डमूल में जन्म का फल : 

विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही हो ऐसा नहींहै  !

अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में -   आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में -    उच्च पद
चतुर्थ पद में -     राज सम्मान

आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में -   संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में -    माता को हानि
चतुर्थ पद में -     पिता को हानि

मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     माता को हानि
द्वितीय पद में -   पिता को हानि
तृतीय पद में -    उत्तम
चतुर्थ पद में -     संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम

ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में -   छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में -    माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में -     स्वयं के लिए अशुभ

मूल  नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में -   माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में -    संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में -     शांति कराई जाये तो शुभ फल

रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में -     राज सम्मान
द्वितीय पद में -   मंत्री पद
तृतीय पद में -    धन सुख
चतुर्थ पद में -     स्वयं को कष्ट

अभुक्तमूल

ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं !इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !

यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है -


लग्न गंडांत :- मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की घडी कुल २४ मिनट  लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :-,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ तिथि गंडांत है रहता है !

**जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है ;
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ फल करक होंगे !

गण्ड का अपवाद : 

निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
१.      गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२.      बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३.      वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४.      ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५.      वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !


मूल

वैदिक ज्योतिष के अनुसार कुंडली से गणनाएं करने के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले सताइस नक्षत्रों में से मूल को 19वां नक्षत्र माना जाता है। मूल का शाब्दिक अर्थ है केन्द्रीय बिन्दु, सबसे भीतरी बिन्दु अथवा किसी पेड़ पौधे की जड़ और इस के अनुसार मूल नक्षत्र को सीधा-सपष्ट होने के साथ, प्रत्येक मामले की जड़ तक पहुंचने की क्षमता रखने के साथ तथा ऐसी ही अन्य विशेषताओं के साथ जोड़ा जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार एक साथ बंधी हुई कुछ पौधों की जड़ों को मूल नक्षत्र का प्रतीक चिन्ह माना जाता है तथा इस प्रतीक चिन्ह से भी विभिन्न वैदिक ज्योतिषी विभिन्न प्रकार के अर्थ निकालते हैं। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि पौधे की जड़ भूमि के अंदर छिपी रहती है जिसके चलते मूल नक्षत्र भी बहुत से रहस्यों, गुप्त विद्याओं तथा अदृश्य शक्तियों के साथ जुड़ा रहता है। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि मूल नक्षत्र के जातक प्रत्येक मामले की जड़ तक पहुंचने की प्रवृति रखने वाले होते हैं तथा वे प्रत्येक मामले के सबसे भीतरी पक्षों अथवा जड़ को पकड़ने में विश्वास रखने वाले होते हैं। बहुत से वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि मूल नक्षत्र के जातक सीधे तथा सपष्ट स्वभाव के होते हैं तथा ऐसे जातक अपनी बात प्राय: बिना किसी भूमिका के ही कह देते हैं जिसके कारण कई बार इन्हें अशिष्ट भी माना जाता है किन्तु मूल नक्षत्र के जातकों को अपने बारे में की जाने वाली बातों से आम तौर पर कोई सरोकार नहीं होता। जिस प्रकार किसी पेड़ को काट देने के पश्चात भी वह अपनी जड़ों के माध्यम से अपने शरीर और शक्ति को पुन: प्राप्त कर लेने में सक्षम होता है उसी प्रकार मूल नक्षत्र में भी अपनी खोई हुई शक्ति तथा आधिपत्य पुन: प्राप्त कर लेने की क्षमता होती है।


                       कुछ वैदिक ज्योतिषी मानते हैं कि मूल नक्षत्र के जातक बहुत गहरे होते हैं तथा इनके मन की बात को जान लेना आम तौर पर बहुत कठिन होता है क्योंकि मूल नक्षत्र के जातक किसी रहस्य को सफलतापूर्व छिपा लेने में उसी प्रकार सक्षम होते हैं जिस प्रकार किसी पौधे की जड़ अपने आप को भूमि के भीतर छिपा कर रखने में सक्षम होती है। कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि जिस प्रकार जड़ किसी भी पौधे अथवा वस्तु का सबसे महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली भाग होती है तथा भूमि एवम अन्य माध्यमों के द्वारा शक्ति अर्जित करने में सक्षम होती है, उसी प्रकार मूल नक्षत्र के जातक भी शक्ति तथा प्रभुत्व अर्जित करने में अन्य कई नक्षत्रों के जातकों की तुलना में कहीं अधिक सक्षम होते हैं। वहीं पर कुछ अन्य वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि जिस प्रकार पौधे की जड़ भूमि के भीतर छिपी तथा रहस्यों के साथ जुड़ी होती है उसी प्रकार मूल नक्षत्र के जातक बहुत सी पारलौकिक तथा गुप्त विद्याओं के साथ जुड़ने की प्रबल क्षमता रखते हैं जिसके चलते मूल नक्षत्र के जातकों की गुप्त विद्याओं के प्रति बहुत रूचि होती है तथा मूल नक्षत्र के प्रबल प्रभाव वाले कुछ विशिष्ट जातक ऐसी ही किसी विद्या का अभ्यास व्यवसायिक रूप से भी करते हैं।

                          कुछ वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि मूल नक्षत्र के प्रतीक चिन्ह में प्रयोग की गईं जड़ों का बंधा होना इस बात का संकेत देता है कि मूल नक्षत्र के द्वारा अर्जित की जाने वाली शक्ति तथा प्रभुत्व किसी न किसी प्रकार से सीमित भी अवश्य होती है क्योंकि जड़ों का बंध जाना शक्ति अथवा प्रभुत्व के सीमित हो जाने को दर्शाता है। वहीं पर कुछ अन्य वैदिक ज्योतिषी यह मानते हैं कि मूल नक्षत्र के प्रतीक चिन्ह में प्रयोग की जाने वाली जड़ों का बंध जाना यह दर्शाता है कि मूल नक्षत्र के जातक अपने परिवार तथा समाज के साथ जुड़े तथा बंधे हुए होते हैं तथा अपने परिवार और समाज के साथ जुड़ने से इन जातकों की शक्ति उसी प्रकार से बढ़ जाती है जिस प्रकार एक साथ बंधी हुई जड़ों की शक्ति एक अकेली जड़ की तुलना में कहीं अधिक होती है। इसी कारण से मूल नक्षत्र के जातक अपने जीवन काल में अपने परिवार और संबंधियों की सहायता से सफलता प्राप्त करते देखे जा सकते हैं। इस प्रकार मूल नक्षत्र के प्रतीक चिन्ह के साथ विभिन्न वैदिक ज्योतिषी विभिन्न प्रकार के अर्थों को जोड़ते हैं जिनके चलते यह कहा जा सकता है कि मूल नक्षत्र के जातक सपष्ट स्वभाव वाले, प्रत्येक विषय की जड़ तक पहुंचने की चेष्टा करने वाले तथा अपने परिवार एवम संबंधियों की सहायता से शक्ति एवम प्रभुत्व अर्जित करने वाले होते हैं तथा मूल नक्षत्र के जातकों को गुप्त तथा अदृष्य विदयाओं से भी समय समय पर सहायता प्राप्त होती है।


                        वैदिक ज्योतिष के अनुसार नृति को मूल नक्षत्र की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है जिसके कारण नृति देवी का इस नक्षत्र पर प्रबल प्रभाव रहता है। नृति शब्द का अर्थ विनाश है तथा वैदिक ज्योतिष के अनुसार नृति को विनाश तथा प्रलय की देवी ही माना जाता है और नृति का मूल नक्षत्र पर प्रभाव होने के कारण नृति देवी की विनाश से संबंधित बहुत सी विशेषताएं मूल नक्षत्र के माध्यम से प्रदर्शित होतीं हैं जिसके कारण मूल नक्षत्र के स्वभाव में भी विनाशकारी कार्यों को करने के प्रति रूचि पायी जाती है। इसी कारण बहुत से वैदिक ज्योतिषी मूल को एक अशुभ तथा अहितकारी नक्षत्र मानते हैं जिसके प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक अपने जीवन काल में किसी न किसी प्रकार की शक्ति अर्जित करने में सफल होते हैं तथा शक्ति और प्रभुत्व प्राप्त हो जाने के पश्चात यही जातक अपने अभिमान के चलते इस शक्ति तथा प्रभुत्व का दुरुपयोग भी करते हैं जिसके कारण इन्हें पतन का सामना भी करना पड़ता है। कहा जाता है कि लंकापति रावण की जन्म कुंडली में मूल नक्षत्र का प्रबल प्रभाव था जिसके चलते उसने अपने संबंधियों तथा गुप्त विद्याओं की सहायता से अपार शक्ति तथा प्रभुत्व प्राप्त कर लिया था किन्तु अपने अभिमान के चलते उसने इन शक्तियों का दुरुपयोग करना शुरु कर दिया था जिसके कारण अंत में उसका पतन हो गया। इस प्रकार नृति देवी का इस नक्षत्र पर प्रभाव इस नक्षत्र को शक्ति अर्जित करने से तथा उस शक्ति का दुरुपयोग करने से जोड़ता है। किन्तु यह तथ्य मूल नक्षत्र का अंतिम सत्य नहीं है तथा इस नक्षत्र के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पहले इस नक्षत्र पर पड़ने वाले अन्य शक्तियों के प्रभाव को समझ लेना भी अति आवश्यक है।

                              नवग्रहों में से केतु को वैदिक ज्योतिष के अनुसार मूल नक्षत्र का अधिपति ग्रह माना जाता है जिसके कारण केतु का इस नक्षत्र पर प्रभाव रहता है। केतु को वैदिक ज्योतिष में भूत काल, मुसीबतों, समस्याओं तथा रहस्यों के साथ जोड़ा जाता है तथा केतु के चरित्र की ये विशेषताएं मूल नक्षत्र के माध्यम से प्रदर्शित होतीं हैं जिनके चलते मूल नक्षत्र की उर्जा को संचालित करना और भी कठिन हो जाता है। केतु को एक उग्र तथा विनाशकारी ग्रह के रूप में भी जाना जाता है तथा केतु की ये विशेषताएं भी मूल नक्षत्र के माध्यम से प्रदर्शित होतीं हैं जिनके चलते मूल नक्षत्र और भी उग्र तथा विनाशकारी प्रवृति का हो जाता है और इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातकों की किसी न किसी प्रकार का विनाशकारी कार्य करने में रुचि अवश्य रहती है जिसे नियंत्रित कर पाना इस नक्षत्र के प्रभाव में आने वाले अधिकतर जातकों के लिए बहुत कठिन होता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार मूल नक्षत्र के चारों चरण धनु राशि में आते हैं जिसके चलते इस नक्षत्र पर धनु राशि तथा इस राशि के स्वामी ग्रह बृहस्पति का भी प्रभाव पड़ता है। बृहस्पति को वैदिक ज्योतिष में सबसे शुभ ग्रह के रूप में जाना जाता है तथा बृहस्पति की परोपकार, सृजनात्मक कार्य करने और विनाशकारी कार्यों से दूर रहने तथा उचित अनुचित में अंतर करने के पश्चात ही आचरण करने जैसीं विशेषताएं मूल नक्षत्र के माध्यम से प्रदर्शित होतीं हैं। इस प्रकार बृहस्पति तथा धनु राशि का मूल नक्षत्र पर प्रभाव इस नक्षत्र को आशा तथा संतुलन प्रदान करता है जिसके कारण मूल नक्षत्र के जातक इस नक्षत्र की उर्जा को सकारात्मक तथा सृजनात्मक कार्यों में लगा पाने में भी सक्षम हो जाते हैं तथा किसी कुंडली में इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव का सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रभाव उस कुंडली में इस नक्षत्र को प्रभावित करने वाले केतु, गुरू तथा धनु राशि के बल और स्वभाव पर निर्भर करता है जिसके चलते मूल नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले विभिन्न जातक विभिन्न प्रकार का आचरण कर सकते हैं।

                       उदाहरण के लिए किसी कुंडली में मूल नक्षत्र के अपने आप में प्रबल होने पर तथा केतु के बलवान और नकारात्मक होने पर इस नक्षत्र के नकारात्मक आचरण की संभावना बढ़ जाती है जबकि किसी कुंडली में केतु के अधिक शक्तिशाली न होने पर तथा गुरु के प्रबल तथा सकारात्मक होने पर इस नक्षत्र के सकारात्मक आचरण की संभावना बढ़ जाती है। इस प्रकार मूल नक्षत्र का किसी कुंडली में सकारात्मक अथवा नकारात्मक आचरण करना बहुत सीमा तक उस कुंडली में इस नक्षत्र को प्रभावित करने वालीं शक्तियों के बल तथा स्वभाव पर निर्भर करता है किन्तु यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत सकारात्मक प्रभाव में होने पर भी मूल नक्षत्र की नकारात्मक तथा विनाशकारी प्रवृति पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हो पाती तथा इस नक्षत्र के सकारात्मक प्रभाव में आने वाले भी जातक भी कभी न कभी इस नक्षत्र की उर्जा का नकारात्मक प्रयोग अवश्य कर देते हैं जिसके कारण इन जातकों को हानि भी उठानी पड़ती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मूल नक्षत्र अपने प्रभाव में आने वाले जातक को शक्ति तथा प्रभुत्व प्रदान करता है और साथ ही साथ उस शक्ति का दुरुपयोग करने की प्रवृति भी प्रदान करता है जिसके कारण इन जातकों का पतन अथवा हानि हो जाती है। इसलिए मूल नक्षत्र की उर्जा को एक कठिन उर्जा माना जाता है जिसे नियंत्रित करना तथा सही दिशा में संचालित करना अधिकतर जातकों के लिए बहुत कठिन कार्य है।


                         मूल नक्षत्र के जातक आम तौर पर लक्ष्य केंद्रित होते हैं तथा ये जातक कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी तब तक प्रयास करते रहते हैं जब तक या तो ये जातक अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लें या फिर इन जातकों की सारी उर्जा समाप्त न हो जाए। मूल नक्षत्र के जातक अपने लक्ष्य की प्राप्ति के रास्ते में आने वाली कठिनाईयों से बिल्कुल भी विचलित नहीं होते तथा अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। मूल एक उग्र तथा तीव्र स्वभाव का नक्षत्र है तथा इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक प्राय: किसी काम को करने से पूर्व अधिक सोच विचार नहीं करते जिसके कारण इन जातकों को बाद में कई बार पछताना भी पड़ता है किन्तु मूल नक्षत्र के अधिकतर जातक अपनी भूलों से शिक्षा नहीं लेते तथा उसी प्रकार की भूलें बार बार करके हानि उठाते रहते हैं। मूल नक्षत्र के जातक योजनाएं बनाने में तथा गठजोड़ करने की कला में निपुण होते हैं तथा ये जातक अपनी इन विशेषताओं का प्रयोग शक्ति और प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए करते हैं। मूल नक्षत्र के बहुत से जातक अपने स्वार्थ के लिए अपने निकट संबंधियों तथा मित्रों का शोषण भी कर सकते हैं तथा इस नक्षत्र के जातक ऐसे रिश्तों को शीघ्र से शीघ्र समाप्त कर देने में विश्वास रखते हैं जिनसे इन्हें कोई लाभ न दिखता हो तथा इसी कारण मूल नक्षत्र के जातकों को स्वार्थी भी कहा जाता है। मूल नक्षत्र के बहुत से जातक हठी, अभिमानी तथा अहंकारी भी होते हैं तथा कुछ वैदिक ज्योतिषी तो यह मानते हैं कि मूल नक्षत्र के अधिकतर जातकों के पतन का कारण इनका अभिमान तथा अहंकार ही होता है। इस लिए मूल नक्षत्र के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातकों के लिए अपने अहंकार तथा अभिमान को नियंत्रण में रखना अति आवश्यक हो जाता है जबकि इस नक्षत्र की उर्जा को नियंत्रित रख पाना अपने आप में एक कठिन कार्य है जिसके कारण बहुत से ज्योतिषी किसी कुंडली में इस नक्षत्र के प्रबल प्रभाव को चिंता का विषय मानते हैं।

                       लेख के अंत में आइए अब चर्चा करते हैं मूल नक्षत्र से जुड़े कुछ अन्य तथ्यों के बारे में जिन्हें वैदिक ज्योतिष के अनुसार विवाह कार्यों के लिए प्रयोग की जाने वाली गुण मिलान की विधि में महत्वपूर्ण माना जाता है। वैदिक ज्योतिष मूल को एक नपुसंक लिंगी अथवा उभय लिंगी नक्षत्र मानता है जिसका कारण बहुत से ज्योतिषी इस नक्षत्र का केतु के साथ प्रगाढ़ संबंध मानते हैं क्योंकि केतु को वैदिक ज्योतिष के अनुसार नपुंसक ग्रह माना जाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार मूल नक्षत्र को वर्ण से शूद्र, गण से राक्षस तथा गुण से तामसिक माना जाता है तथा इन सभी निर्धारणों का कारण बहुत से वैदिक ज्योतिषी इस नक्षत्र का नृति तथा केतु के साथ संबंध तथा इस नक्षत्र की कार्यशैली को मानते हैं। वैदिक ज्योतिष पंच तत्वों में से वायु तत्व को मूल नक्षत्र के साथ जोड़ता है।




गंड-मूल नक्षत्र क्या है ?

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ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी को केंद्र मानकर पुरे ब्रह्माण्ड को १२ राशी में बिभाजित किया गया है | १२ राशी में २७ नक्षत्र होते है | एक नक्षत्र में ४ चरण होते है अर्थात १२ राशी में १०८ चरण हुवे | इस प्रकार एक राशी में ९ चरण हुवे | इसका मतलब यह हुवा कि एक राशी में अगर पहला नक्षत्र (४ चरण) शुरू हुवा तो वह पूरा होकर दूसरा नक्षत्र (४ चरण) भी पूरा होकर तीसरे नक्षत्र के प्रथम चरण पर ख़त्म होगा दूसरा राशी तीसरे नक्षत्र के दुसरे चरण से शुरू होगा |


गंड: जहाँ राशी एवं नक्षत्र एक साथ समाप्त हो जाते है |

मूल जहाँ दूसरे राशि से नक्षत्र का आरम्भ होता है |

अर्थात जिस राशी में नक्षत्र का पूर्णतः अंत हो जाये उसको गंद्मूल नक्षत्र कहते है |

जैसे कि

अश्वनी नक्षत्र के चारो चरण मेष राशि में आएगा तथा मेष राशि का स्वामी मंगल एक अग्नि प्रधान गृह है |

अश्लेशा नक्षत्र के चारो चरण कर्क राशि में समाप्त होता है जो जल तत्त्व राशि है तथा चंद्रमा इसके बाद अपना संचार सिंह राशि में तथा माघ नक्षत्र में करता है जो को अग्नि तत्त्व राशि है अर्थात कर्क से सिंह राशि जो कि अग्नि तत्त्व राशि है, जल से अग्नि की ओर चंद्रमा अग्रसर होता है |

वृश्चक राशि में ज्येष्ठ के चारो चरण जो धनु राशि तथा मूला नक्षत्र कि ओर चंद्रमा अग्रसर होता है अर्थात अग्नि तत्त्व वृश्चक की ओर से धनु वायु तत्त्व की ओर जाता है।

रेवती नक्षत्र के चारो चरण जो मीन राशि में ही समाप्त होता है जो जल तत्त्व है फिर चंद्रमा मीन से मेष में अस्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है अर्थात (मीन) जल से (मेष) अग्नि की ओर |

इस प्रकार २७ नक्षत्र में से ६ नक्षत्र ऐसे है जिन्हें गंडमूल नक्षत्र कहा जाता है, जैसे : अश्विनी, अश्लेशा, माघ, ज्येष्ठ, मूला, रेवती। इनमे से ३ नक्षत्र (अश्विनी, माघ, मूला) के स्वामी केतु है तथा बाकि तीन (अश्लेशा, ज्येष्ठ, रेवती) के स्वामी बुध हैं |

जैसे वर्ष भर में जब एक ऋतू का स्थान दूसरी ऋतू लेती है तब भी उन दो ऋतुओ के बीच का मोड़ स्वास्थय के लिए सही नहीं रहता है वैसे ही यह नक्षत्रो का स्थान परिवर्तन जीवन और स्वास्थय दोनों के लिए हानिकारक है. इसमें कारण यह है कि यह स्थान न राशि का है न नक्षत्र का | यह स्थान एक ऐसा स्थान है जहाँ पर किसी का स्वामित्व नहीं रहता है अर्थात यह एक मोड़ है जहा चंद्रमा, राशि और नक्षत्र का सामंजस्य समाप्त हो जाता है |

सतईसा हम इस लिए कहते है कि एक नक्षत्र का पुनः आगमन २७ दिन बाद होता है अर्थात ऐसे नक्षत्र में जन्मे बालक कि ठीक २७वे दिन इसी नक्षत्र में शान्ति करवाना परम आवश्यक है |

ज्योतिष शास्त्र में मूल नक्षत्र में जन्मे बालक को पिता के लिए कष्टप्रद माना जाता है | ऐसा नहीं है कि सभी गंद्मूल के नक्षत्र अशुभ होता हैं | कुछ शुभ भी होते है जैसे :

अश्विनी नक्शत्र :
१ चरण : पिता को कष्ट भय.
२ चरण : सुख सम्पति में वृद्धि
३ चरण : राज काज में विजय
४ चरण : राज्य में सम्मान

अश्लेशा नक्षत्र :
१. चरण : शान्ति करवाए तो शुभ फल प्राप्त होता है
२ चरण : धन नाश
३ चरण : माता को कष्ट
४ चरण : पिता के लिए कष्टप्रद

माघ नक्षत्र :
१ चरण: माता के लिए अनिष्ट
२ चरण: पिता को कष्ट.
३ चरण: सुख और समृधि कारक.
४ चरण: धन विद्या और प्रगति .

ज्येष्ठ नक्षत्र :
१ चरण : बड़े भाई को कष्ट.
२ चरण : छोटे भाई को कष्ट.
३ चरण : माता को कष्ट .
४ चरण: खुद के शरीर को कष्ट.

मूल नक्षत्र :
१ चरण : पिता को कष्ट, भय ।
२ चरण : माता को कष्ट ।
३ चरण : धन लाभ।
४ चरण : लाभ लेकिन यतन से

रेवती नक्षत्र:
१ चरण : राज्य एवं सम्मान ।
२ चरण : वैभव में वृद्धि ।
३ चरण : व्यापार में लाभ ।
४ चरण ; विविध प्रकार के कष्ट ।

मूल नक्षत्र कैसे जानें

बालक का जन्म होने पर अभिभावक की प्रथम प्रश्न/जिज्ञासा यह रहती है कि बालक का नाम नक्षत्र क्या है तथा यह परिवार के लिए कैसा रहेगा। नक्षत्र तथा चरण के ज्ञात होने पर हमने बालक नाम एवं राशि तो जान ली, अब हमें नक्षत्र देखना है कि बालक का जन्म मूल संज्ञक नक्षत्र में तो नहीं हुआ है। 27 नक्षत्रों में अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल एवं रेवती कुल 6 नक्षत्र मूल संज्ञक (तुल्य) नक्षत्र कहलाते हैं। 
इनमें भी आश्लेषा, ज्येष्ठा एवं मूल बड़े मूल तथा शेष अश्विनी, मघा एवं रेवती हल्के मूल की श्रेणी में आते हैं। इन नक्षत्रों में जन्मे बालक को सामान्यत: किसी न किसी प्रकार की कठिनाई से गुजरना पड़ता है। आरंभिक काल में स्वास्थ्य, पीड़ा, शिक्षा, आर्थिक परेशानी, माता-पिता, बंधु, परिवारजनों, वाहन से संबंधित कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसलिए मूल संज्ञक नक्षत्रों में जन्मे जातक की नक्षत्र शांति परम आवश्यक माना गया है। 
अश्लेषा नक्षत्र का दोष नौ माह तक, मूल नक्षत्र का आठ वर्ष तक, ज्येष्ठा का 15 माह तक दोष रहता है। इसके पूर्व ही नक्षत्र शांति करवा लेना चाहिए। बड़े मूल नक्षत्र (अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल) में जन्मे जातक की शांति 27वें दिन पुन: उसी नक्षत्र के आने पर करवाना चाहिए तथा हल्के मूल नक्षत्र (मघा, रेवती, अश्विनी) की शांति 12वें दिन शुभ मुहूर्त में करवाना चाहिए। मूल संज्ञक नक्षत्रों के प्रभावों को तालिका से संक्षिप्त रूप से जाना जा सकता है। 
तीन कन्या के बाद पुत्र या तीन पुत्रों के बाद कन्या जन्म त्रिकदोष कहलाता है। इसकी भी शांति करवाना चाहिए। नक्षत्र का नाम सुनकर भयभीत या डरने की आवश्यकता नहीं है, यह सामान्य प्रक्रिया है। ईश्वर के हाथ में है, मनुष्य के हाथ में नहीं। 
जिस प्रकार बारिश से बचने के लिए छाता/रेनकोट का उपयोग करते हैं तथा उसके प्रभाव से बचा जा सकता है। ठीक उसी प्रकार नक्षत्र शांति उपाय कर नक्षत्रों के कुप्रभाव से बचा जा सकता है तथा अच्छे फलों को प्राप्त किया जा सकता है। 
महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म भी मूल नक्षत्र में हुआ था। मूल संज्ञक नक्षत्रों में जन्मे बालक किसी क्षेत्र विशेष में पारंगत होते हैं। किसी कार्य को करने की उनमें धुन सवार होती है। केवल उन्हें सही मार्गदर्शन और प्रेरणा देनेवाले की आवश्कता होती है


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