G-B7QRPMNW6J Bhadra kal Vichar भद्रा काल विचार प्रभाव एवं दोष परिहार उत्पत्ति की कथा
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Bhadra kal Vichar भद्रा काल विचार प्रभाव एवं दोष परिहार उत्पत्ति की कथा

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Bhadra kal Vichar भद्रा काल विचार प्रभाव एवं दोष परिहार उत्पत्ति की कथा 

Bhadra kal Vichar भद्रा काल विचार प्रभाव एवं दोष परिहार उत्पत्ति की कथा
Bhadra kal Vichar भद्रा काल विचार प्रभाव एवं दोष परिहार उत्पत्ति की कथा 


भारतीय हिन्दू संस्कृति में भद्रा काल को अशुभ काल माना जाता है इस अवधि में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित माना गया है। यदि आप शुभ कार्य करते है तो अशुभ परिणाम मिलने की प्रबल  सम्भावना  होती है। मुहूर्त मार्तण्ड में कहा है – 

“ईयं भद्रा शुभ-कार्येषु अशुभा भवति”  अर्थात शुभ कार्य में भद्रा अशुभ होती है। ऋषि कश्यप ने भी भद्रा काल को अशुभ तथा दुखदायी बताया है —

न कुर्यात मंगलं विष्ट्या जीवितार्थी कदाचन।

कुर्वन अज्ञस्तदा क्षिप्रं तत्सर्वं नाशतां व्रजेत।।

अर्थात जो व्यक्ति अपना जीवन सुखमय व्यतीत करना चाहता है उसे भद्रा काल में कोई भी मंगल कार्य नही करना चाहिए। यदि आप अज्ञानतावश भी ऐसा कार्य करते है तो मंगल कार्य का फल अवश्य ही नष्ट हो जाएगा।  

पौराणिक कथा के अनुसार भद्रा कौन थी ?

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान सूर्य देव की पुत्री तथा शनिदेव की बहन का नाम भद्रा है। भविष्यपुराण में कहा गया है की भद्रा का प्राकृतिक स्वरूप अत्यंत भयानक है इनके उग्र स्वभाव को नियंत्रण करने के लिए ही ब्रह्मा जी ने इन्हें कालगणना का एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। कहा जाता है की ब्रह्मा जी ने ही भद्रा को यह वरदान दिया है कि जो भी जातक/व्यक्ति उनके समय में कोई भी शुभ /मांगलिक कार्य करेगा, उस व्यक्ति को भद्रा अवश्य ही परेशान करेगी। 

ऐसा माना जाता है कि दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ (गधा) के मुख और लंबे पुंछ और तीन पैर युक्त उत्पन्न हुई। भद्रा, काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देख कर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्टा कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा? सभी ने सूर्य देव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सूर्य देव ने ब्रह्मा जी से उचित परामर्श मांगा। ब्रह्मा जी ने तब विष्टि से कहा कि -भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करें, तो तुम उन्हीं में विघ्न डालो, जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना। इस प्रकार उपदेश देकर ब्रह्मा जी अपने लोक चले गए। तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी।

इसी कारण वर्तमान समय में भी ज्योतिषी तथा गृह के बुजुर्ग भद्रा काल में शुभ कार्य करने से मना करते है। ऐसा देखा भी गया है की इस काल में जो भी कार्य प्रारम्भ किया जाता है वह या तो पूरा नही होता है या पूरा होता है तो देर से होता है।

भद्रा काल किसे कहते है ? 

किसी भी शुभ कार्य में मुहूर्त का विशेष महत्व है तथा मुहूर्त की गणना के लिए पंचांग का सामंजस्य होना अति आवश्यक है।पंचांग में  तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण  होता है। पंचांग का पांचवा अंग “करण” होता है। तिथि के पहले अर्ध भाग को प्रथम “करण” तथा तिथि के दूसरे अर्ध भाग को द्वितीय करण कहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है की एक तिथि में दो करण होते हैं। जब भी तिथि विचार में विष्टि नामक करण आता है तब उस काल विशेष को  “भद्रा”  कहते हैं। भद्रा नमक करण का विशेष महत्व है।

भद्रा काल कब-कब होती है ?

महीना में दो पक्ष होते है। मास के एक पक्ष में भद्रा की 4 बार पुनरावृति होती है। यथा —-शुक्ल पक्ष में अष्टमी( 8) तथा पूर्णिमा (15 ) तिथि के पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है, वही चतुर्थी (4) एकादशी (11) तिथि के उत्तरार्ध में भद्रा काल होती है।  कृष्ण पक्ष में भद्रा तृतीया (3) व दशमी (10) तिथि का उत्तरार्ध और सप्तमी (7) व चतुर्दशी(14) तिथि के पूर्वार्ध में  होती है। है। हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं। यह है - तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। करण की संख्या ग्यारह होती है। यह चर और अचर में बांटे गए हैं। चर या गतिशील करण में बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि गिने जाते हैं। अचर या अचलित करण में शकुनि, चतुष्पद, नाग और किस्तुघ्न होते हैं। इन ग्यारह करणों में सातवां करण विष्टि का नाम ही भद्रा है। यह सदैव गतिशील होती है। पंचाग शुद्धि में भद्रा का खास महत्व होता है। 

इसकी अवधि 7 से 13 घंटे 20 मिनट तक होती है।

भद्रा लोक वास चक्रम

लोकवास स्वर्ग पाताल भूलोक

चंद्रराशि 1,2,3,8 6,7,9,10 4,5,11,12

भद्रा-मुख उर्ध्वमुखी अधोमुख सम्मुख

भद्रा का वास कब और कहां होता है

पौराणिक ग्रथ मुहुर्त्त चिन्तामणि में कहा गया है की जब:-

A. चंद्रमा जब कर्क, सिंह, कुंभ या मीन राशि में होता है तब भद्रा का वास पृथ्वी अर्थात मृत्युलोक में होता है। 

B. चंद्रमा जब मेष, वृष, मिथुन या वृश्चिक में रहता है तब भद्रा का वास स्वर्गलोक में होता है।  

C. चंद्रमा जब कन्या, तुला, धनु या मकर राशि में स्थित होने पर भद्रा का वास पाताल लोक में होता है। 

कहा जाता है की भद्रा जिस भी लोक में विराजमान होती है वही मूलरूप से प्रभावी रहती है। अतः जब चंद्रमा गोचर में कर्क, सिंह, कुंभ या मीन राशि में  होगा तब भद्रा पृथ्वी लोक पर असर करेगी । भद्रा जब पृध्वी लोक पर होगी तब भद्रा की अवधि कष्टकारी होगी।

जब भद्रा स्वर्ग या पाताल लोक में होगी तब वह शुभ फल प्रदान करने में समर्थ होती है। संस्कृत ग्रन्थ पीयूषधारा में कहा गया है —

स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात पाताले च धनागम।

मृत्युलोक स्थिता भद्रा सर्व कार्य विनाशनी ।।

मुहूर्त मार्तण्ड में भी कहा गया है —“स्थिताभूर्लोख़्या भद्रा सदात्याज्या स्वर्गपातालगा शुभा” अतः यह स्पष्ट है कि मेष, वृष, मिथुन, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु या मकर राशि के चन्द्रमा में भद्रा पड़ रही है तो वह शुभ फल प्रदान करने वाली होती है।

भद्रा काल संबंधी परिहार | Avoidance of Bhadra

भद्रा परिहार हेतु मुहूर्त चिंतामणि, पीयूषधारा तथा ब्रह्म्यामल में  कहा गया है —

दिवा भद्रा रात्रौ रात्रि भद्रा यदा दिवा।

न तत्र भद्रा दोषः स्यात सा भद्रा भद्रदायिनी।।

अर्थात यदि दिन की भद्रा रात में और रात की भद्रा दिन में आ जाए तब भद्रा का दोष नहीं लगता है। भद्रा का दोष पृथ्वी पर नहीं होता है । ऎसी भद्रा को शुभ फल देने वाली माना जाता है।

रात्रि भद्रा यदा अहनि स्यात दिवा दिवा भद्रा निशि। 

न तत्र भद्रा दोषः स्यात सा भद्रा भद्रदायिनी।।

अर्थात रात की भद्रा दिन में हो तथा दिन की भद्रा जब रात में आ जाए तो भद्रा दोष नही होता है यह भद्रा शुभ फल देने वाली होती है।

एक अन्य मतानुसार —

तिथे पूर्वार्धजा रात्रौ दिन भद्रा परार्धजा।भद्रा दोषो न तत्र स्यात कार्येsत्यावश्यके सति।।

अर्थात यदि को महत्वपूर्ण कार्य है और उसे करना जरुरी है एवं   उत्तरार्ध की भद्रा दिन में तथा पूर्वार्ध की भद्रा रात में हो तब इसे शुभ माना गया है।  अंततः यह कहा जा सकता है की यदि कभी भी भद्रा में शुभ काम  करना जरुरी है तब भूलोक की भद्रा तथा भद्रा मुख-काल को त्यागकर स्वर्ग व पाताल की भद्रा पुच्छकाल में मंगलकार्य किए जा सकते हैं इसका परिणाम शुभ फलदायी होता है।

भद्रा मुख तथा भद्रा पुच्छ जानने की विधि

भद्रा मुख | Bhadra Mukh

प्राचीन ग्रन्थ मुहुर्त्त चिन्तामणि के अनुसार “शुक्ल पक्ष” की चतुर्थी तिथि की पांचवें प्रहर की 5 घड़ियों में भद्रा मुख होता है, अष्टमी तिथि के दूसरे प्रहर के कुल मान आदि की 5 घटियाँ, एकादशी के सातवें प्रहर की प्रथम 5 घड़ियाँ तथा पूर्णिमा के चौथे प्रहर के शुरुआत की 5 घड़ियों में भद्रा मुख होता है।

उसी तरह “कृष्ण पक्ष” की तृतीया के 8वें प्रहर आदि की 5 घड़ियाँ भद्रा मुख होती है, कृष्ण पक्ष की सप्तमी के तीसरे प्रहर में आदि की 5 घड़ी में भद्रा मुख होता है। इसी प्रकार कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि का 6 प्रहर और चतुर्दशी तिथि का प्रथम प्रहर की 5 घड़ी में भद्रा मुख व्याप्त रहता है।

भद्रा पुच्छ | Bhadra Puncch

शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के अष्टम प्रहर की अन्त की 3 घड़ी दशमांश तुल्य को भद्रा पुच्छ कहा गया है। पूर्णिमा की तीसरे प्रहर की अंतिम 3 घटी में भी भद्रा पुच्छ होती है।

ध्यातव्य बातें :-  यह बात ध्यान देने योग्य है कि भद्रा के कुल मान को 4 से भाग देने के बाद जो परिणाम आएगा वह प्रहर कहलाता है है, 6 से भाग देने पर षष्ठांश आता है और दस से भाग देने पर दशमांश प्राप्त हो जाता है।

भद्रा के करण

कुल सात करण होते है। इनमें से ‘‘विष्टी’’ करण को भद्रा कहते है। प्रायः एक तिथि का आधा भाग एक करण होता है। विष्टी करण के स्वामी यम माने गये है। भद्रा के रूप में किया गया कार्य नष्ट हो जाता है ऐसा माना गया है परंतु भद्रा पूंछ जो कि विष्टी करण की अंतिम तीन घटियाँ होती है, में कार्य करने की आज्ञा दी गयी है।

भद्राओं की गणना इस प्रकार की जाती हैं - चतुर्थी एक पहर, अष्टमी में दो पहर, सप्तमी को दक्षिण में तीन पहर, पूर्णिमा को नैर्ऋत्य कोण में चार पहर, चतुर्थी को पष्चिम में पांचवां पहर, दषमी को वायव्य कोण में सातवां पहर और तृतीया तिथि को ईषान कोण में आठवां पहर भद्रा का मुख होता है। इन पहरों में यदि कोई कार्य प्रारंभ किया जाये तो उस कार्य की ‘‘मृत्यु’’ हो जाती है।

भद्रा कुल मिलाकर आठ प्रकार की होती है – 

1. कराली 

2. नंदनी 

3. रौध्री 

4. सुमुखी 

5. दुमुखी 

6. त्रिषीला 

7. वैष्णवी 

8. हंसी 

शुक्ल पक्ष वाली भद्रा को सर्पिणी तथा कृष्ण पक्ष वाली भद्रा को वृष्चिकी कहा गया है । सर्पिणी का मुख त्यागा जाता है और वृष्चिकी की पुच्छ को त्यागा जाता है।

भद्रा को कुरूप व अषुभ माना गया है। एक बार देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय हो जाने पर भगवान ‘‘शिव ’’ को बहुत क्रोध आया । इस क्रोध में उनकी द्दष्टि अपने की हृदय पर चली गयी । इससें एक शक्ति उत्पन्न हुई । उसका मुख गधे जैसा, गर्दन सिंह जैसी, प्रेत पर सवार दुबली सी पूंछ वाली थी । यह प्रारंभ से ही असुरों का संहार करने लगी । देवताओं ने प्रसन्न होकर इसे कानो के समीप स्थापित कर लिया । अतः इसे कर्ण कहा गया है ।

भद्रा के मुख में 5घटी, कंठ में 2घटी, हृदय में 11घटी, नाभि में 4घटी, कमर में 6घटी और पूछं में 3घटी का समय होता है। शुक्ल पक्ष की अष्टमी और पूर्णिमा के पहले आधे शग में भद्रा होती है तथा चतुर्थी और एकादषी तिथि के उत्तरार्द्ध में भद्रा होती है। इसी शंति कृष्ण पक्ष की तृतीया और दषमी के उत्तरार्द्ध में भद्रा होती है तथा सप्तमी व चतुदर्षी के पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है।

दिन की भद्रा यदि तिथि के उत्तरार्द्ध में हो और रात की भद्रा तिथि के पूर्वार्द्ध में हो तो शुभ मानी गयी है। भद्रा पक्ष में किया गया कार्य सदा सफल होता है ऐसा माना गया है। विवाह, शत्रुहंत, राजर्दषन, ईख आदि की खेती, डाॅक्टर को बुलाना, शत्रु को श्गा देना, हाथी-घोड़ें इत्यादि का संग्रह करना भद्रा में उचित बताया गया है, वध, बंधन, जहर देना, अग्नि, अस्त्र, छेदन, उच्चाटन और पशु इत्यादि के कार्य भद्रा में सिद्ध होते है।

कालिदास का कहना है कि ‘‘भगवान शंकर’’ की पूजा-पाठ में तथा मीन राशि के चंदमा में संग्रह करने से या ‘‘शिव  जी’’ के लिए हवन करने या मेष के चंदमा में कार्य करने से भद्रा अषुभ नहीं कही गयी है।

मेष, वृषभ, मिथुन व वृष्चिक राशि में चंद्रमा होने पर भद्रा का निवास स्वर्ग लोग में होता है। कन्या, तुला, धनु और मकर में भद्रा पाताल लोक में रहती है। कर्क व सिंह राशि में चंद्रमा हो तो भद्रा का निवास पृथ्वी पर होता है। पृथ्वी पर भद्रा को अषुभ माना गया है। भद्रा को लेकर हमें सावधानी पूर्वक कार्य करना चाहिये और भद्रा का उल्गंघन करने से हानि होती है और भद्रा पक्ष में कार्य करने से भद्रा शुभ परिणाम देती है।

गधे, घोड़ें का जन्म हो, दुर्गा पूजा हो, दाह कार्य हो और घात इत्यादि कार्य हो तो भद्रा अषुभ मानी गयी है। इसी तरह से वध, बंधन, जहर, अग्नि, अस्त्र, छेदन और उच्चाटन इत्यादि के कार्यो में भद्रा को शुभ माना गया है व अन्य कार्यों में अशुभ माना गया है।

भद्रा काल में क्या-क्या कार्य करना चाहिए | Which work should do during Bhadra

भद्रा काल केवल शुभ कार्य के लिए अशुभ माना गया है। जो कार्य अशुभ है परन्तु करना है तो उसे भद्रा काल में करना चाहिए ऐसा करने से वह कार्य निश्चित ही मनोनुकूल परिणाम प्रदान करने में सक्षम होता है। भद्रा में किये जाने वाले कार्य – जैसे क्रूर कर्म, आप्रेशन करना, मुकदमा आरंभ करना या मुकदमे संबंधी कार्य, शत्रु का दमन करना,युद्ध करना, किसी को विष देना,अग्नि कार्य,किसी को कैद करना, अपहरण करना, विवाद संबंधी काम,  शस्त्रों का उपयोग,शत्रु का उच्चाटन, पशु संबंधी कार्य इत्यादि कार्य भद्रा में किए जा सकते हैं।

भद्रा में कौन से कार्य नहीं करना चाहिए | Which work should not do during Bhadra

भद्रा काल में शुभ कार्य अज्ञानतावश भी नहीं करना चाहिए ऐसा करने से निश्चित ही अशुभ परिणाम की प्राप्ति होगी।  पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भद्रा में निम्न कार्यों नही करना चाहिए है।  यथा  —  विवाह संस्कार, मुण्डन संस्कार, गृह-प्रवेश, रक्षाबंधन,नया व्यवसाय प्रारम्भ करना, शुभ यात्रा, शुभ उद्देश्य हेतु किये जाने वाले सभी प्रकार के कार्य भद्रा काल में नही करना चाहिए।

भद्रा के बारह नाम | Twelfth Name of Bhadra 

1. धन्या

2. दधिमुखी

3. भद्रा

4. महामारी

5. खरानना

6. कालरात्रि

7. महारुद्रा

8. विष्टि

9. कुलपुत्रिका

10. भैरवी

11. महाकाली

12. असुरक्षयकारी

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