G-B7QRPMNW6J पद्मनाभ द्वादशी व्रत क्यों करते है?
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पद्मनाभ द्वादशी व्रत क्यों करते है?

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पद्मनाभ द्वादशी व्रत क्यों करते है?

17 अक्टूबर, 2021 (रविवार)

पापांकुशा एकादशी के अलगे दिन द्वादशी तिथि को पद्मनाभ द्वादशी व्रत होता है। पद्मनाभ द्वादशी आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। जो कि इस वर्ष 17 अक्टूबर, रविवार को है। पद्मनाभ द्वादशी को भगवान विष्णु के अनंत पद्मनाभ स्वरूप की पूजा करने का विधान है। लेकिन क्या आप जानते है कि इस द्वादशी को इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है। आइए जानते है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार चातुर्मास में भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं तथा उनकी इस विश्राम अवस्था को पद्मनाभ कहा जाता है। अतः इस तिथि को पापांकुशा द्वादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान श्री हरि जागृतावस्था प्राप्त करने हेतु अंगडाई लेते है तथा पद्मासीन ब्रह्या जी ओंकार (ॐ) ध्वति उच्चारित करते हैं।

शुभ मुहूर्त

हिदीं पंचाग के तहत पद्मनाभ द्वादशी तिथि की शुरूआत 16 अक्‍टूबर 2021 शनिवार को शाम 05 बजकर 37 मिनट पर हो रही है। तथा 17 अक्‍टूबर 2021 को 05 बजकर 40 मिनट पर समाप्‍त हो रही है। वही आप इन सभी मुहूर्त के तरीके से द्वादशी व्रत की पूजा कर सकते है।
आज के दिन पद्मनाभ द्वादशी के विशेष पूजन से निर्धन भक्ति धनवान एवं नि:संतानों को संतान सुख के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है। आइए अब जानते है पद्मनाभ द्वादशी व्रत की पूजा विधि के बारे में।


पूजा विधि

पद्मनाभ द्वादशी की पूजा करने के लिए सबसे पहले घर के मंदिर में उपस्थित भगवान विष्णुजी की मूर्ति या फोटो के सामने घी का दीपक जलाएं। इसके बाद भगवान विष्णु को चन्दन का टिका लगाकर अक्षत, पुष्प और तुलसी दल अर्पित करें। इसी के साथ आज भगवान विष्णु के सत्यनारायण रूप की व्रत कथा पढ़ें। इस प्रकार पूजा करने से भगवान विष्णु की कृपा दृष्टि हमेशा बनी रहती है और साथ ही घर में लक्ष्मी का स्थिर वास होता है। आज के दिन विष्णुजी के इस महामंत्र का जाप जरूर करें।
मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरूड़ध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥
इसी के साथ ही भगवान विष्णु को फल का भोग लगायें और श्री मंदिर ऐप पर विष्णु जी की आरती सुनते हुए भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं |


पद्मनाभ द्वादशी व्रत की पौराणिक कथा

प्राचीनकाल की बात है भद्राश्रव नामक एक राजा जो बहुत ही शक्तिशाली था। उसकी प्रजा सभी प्रकार के सुख भोग रही थी। एक दिन राजा के यहा अगस्‍त मुनि आऐ, राजा भद्राश्रव ने उनका भव्‍य स्‍वागत किया। राजा ने विनम्र भाव से ऋषि का आने का कारण पूछा तो ऋषि ने कहा हे राजन मैं तुम्‍हारे इस महले में सात राते गुजारूगा। उसके बाद मैं अपने आश्रम को चला जाऊगा।
राजा ने अगस्‍त मुनि के रहने की व्‍यवस्‍था की। और अपने दोनो हाथ जोड़कर कहा हे मुनिवर आप चाहे जितने दिन यहा रूक सकते है। वही राजा भद्राश्रव की पत्‍नी रानी कान्तिमंती जो बहुत ही सुन्‍द थी। उसके मुख पर ऐसा प्रकाश था मानो कई सूर्य एक साथ मिलकर प्रकाश फैला रहे हो। इसके अलावा राजा के 500 सुन्‍दरियॉं और थी किन्‍तु राजा की पटरानी बनने का सौभाग्‍य केवल रानी कान्तिमंती को मिला था। जब प्रात हुई तो रानी अपनी दासी के साथ अगस्‍त मुनि को प्रणाम करने आई जब ऋ‍षि की दृष्टि कांन्तिमंती और दासी पर पड़ी तो वह देखता ही रह गया।
ऐसी परम सुन्‍दरी रानी और दासी को देखकर अगस्‍त मुनि आनन्‍द में विह्ल होकर बोले हे राजन आप धन्‍य है। इसी तरह दूसरे दिन भी रानी को देखकर अगस्‍त मुनि बोले अरे यहा तो सारा विश्‍व वज्ज्ति रह गया। तथा तीसरे दिन रानी को देखकर पुन: ऋषि ने कहा ”अहो ये मुर्ख गोविन्‍द भगवान को भी नही जानते,
जिन्‍होने केवल एक दिन की प्रसन्‍नता से इस राजा को सब कुछ प्रदान किया था। फिर चौथे दिन रानी को देखकर ऋषि ने अपने दोनो हाथो को ऊपर उठाते हुऐ कहा ‘जगतप्रभु’ आपको साधुवाद है , स्त्रिया धन्‍य है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य। तुम्‍हे पुन: पुन: धन्‍यवाद है। भद्राश्रव तुम्‍हे धन्‍यवाद है।
और कहा हे अगस्‍त तुम भी धन्‍य हो। प्रह्लाद एवं महाव्रती , ध्रवु तुम सभी धन्‍य हो। इस प्रकार उच्‍च स्‍वर में कहकर अगस्‍त्‍य मुनि राजा भद्रश्रव के सामने नाचने लगा। राजा यह देखकर ऋषि से पूछा हे भगवन आप इस तरह क्‍यों नृत्‍य कर रहे हो। राजा की बात सुनकर मुनि बोला राजन बड़े आर्श्‍चय की बात है। की तुम कितने अज्ञानी हो। और साथ ही तुम्‍हारे अनुगमन करने वाले ये मंत्री, पुरोहित आदि अनुजीवी भी मुर्ख है

जो मेरी बात को समझ ही नही पाते। ऋषिवर की बात सुनकर राजा ने अपने दोनो हाथ जोडकर कहा हे मुनिश्रेष्‍ठ आपके मुख से उच्‍चरित पहेली को हम नही समझ पा रहे है। अत: कृपा करके मुझे इसका मतलब बताइऐ। राजा की बात सुनकर अगस्‍त्‍य मुनि बोले हे राजन मेरी पहेती तुम्‍हारी इस सुन्‍दर रानी के ऊपर है जो यह है।
राजन पूर्व जन्‍म में यह रानी किसी नगर में हरिदत्त नामक एक वैश्‍या के घर में दासी का काम करती थी। उस जन्‍म में भी तुम ही इसके पति रूप में थे। और तुम भी हरिदत्त के यहा सेवावृत्त‍ि से एक कर्मचारी थे। एक बार वह वैश्‍य तुम्‍हारे साथ आश्विन माह की शुक्‍लपक्ष की द्वादशी को भगवान विष्‍णु जी के मंदिर जाकर पूजा अराधना की।
उस समय तुम दोनो वैश्‍य की सुरक्षा के लिए साथ थे। पूजा करने के बाद वह वैश्‍य तो अपने घर लौट गया किन्‍तु तुम दोनो मंदिर में ही रूक गऐ। क्‍योकि वैश्‍य ने तुम्‍हे आज्ञा दी थी की कही मंदिर का दीपक बुझ नही जाऐ। वैश्‍य के जाने के बाद तुम दोनो दीपक को जलाकर उसकी रक्षा के लिए वही बैठे रहे।
और ऐसे में पूरी एक रात तक तुम उस दीपक की रखवाली के लिए बैठै रहे। कुछ दिनो के बाद दोनो की आयु समाप्‍त होने पर तुम दोनो की मृत्‍यु हो गई। उसी पुण्‍य प्रभाव से राजा प्रियवत के पुत्र रूप में तुमने जन्‍म लिया। और तुम्‍हारी वह पत्‍नी जो उस जन्‍म में वैश्‍य के यहा दासी थी।
अब एक राजकुमारी के रूप में जन्‍म लेकर तुम्‍हारी पत्‍नी बनी। क्‍योकि भगवान विष्‍णु जी के मंदिर में उस दीपकर को प्रज्‍वलित रखने का काम तुम्‍हारा था। जिस के फल से आज तुम्‍हे यह सब प्राप्‍त है। फिर मुनि ने कहा हे राजा अब कार्तिक की पूर्णिमा का पर्व आ गया है। मैं उसी पर्व के लिए पुष्‍कर (राजस्‍थान के अजमेर जिले) जा रहा था। और रास्‍ते में मैं यहा रूक गया।
अब आप दोनो मुझे विदा दिजिए। राजा और रानी ने अगस्‍त्‍य मुनि के पैर छूकर आशीर्वाद स्‍वरूप पुत्र रत्‍न प्राप्‍ति का वर लिया। और आर्शीवाद देते हुए ऋषिवर वहा से पुष्‍कर के लिए चले दिऐ। तो यह भी पद्मनाभ द्वादशी व्रत की कथा जिसके सुनने मात्र से ही आपको फल प्राप्‍ति का वर मिलता है।
अक्षय  शर्मा-------✍️🚩🙏

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