पांडव पक्ष के बचे हुए योद्धाओं की रक्षा कर रहे शिवजी को अश्वत्थामा ने कैसे प्रसन्न किया?
महाभारत युद्ध का अंतिम दिन था. युद्ध के अंतिम दिन दुर्योधन ने अश्वत्थामा को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया था. अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे दुर्योधन ने अश्वत्थामा से कहा था- मुझे कैसे भी पांचों पांडवों का कटा हुआ शीश देखना है.
श्रीकृष्ण की स्तुति सुनकर भगवान शिव नंदी पर सवार होकर हाथ में त्रिशूल लेकर पांडवों की ओर रक्षा के लिए आ गए. सभी पांडव उस समय शिविर के नजदीक ही स्थित नदी में स्नान कर रहे थे. मध्यरात्रि में अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य तीनों पांडव शिविर के पास आए लेकिन जब तीनों ने शिविर के बाहर भगवान शिव को पहरा देते हुए देखा तो वह डर गए. फिर उन्होंने भी भगवान शिव की स्तुति वंदना आरम्भ कर दी. भगवान शिव तो अपने हर भक्त पर अति शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं. इसलिए वह उन तीनों पर भी प्रसन्न हो गए.
वरदान के रूप में उन्होंने अश्वत्थामा को एक तलवार दी और उन्हें पांडवो के शिविर में जाने की आज्ञा भी दी. फिर अश्वत्थामा ने अपने दोनों साथियों के साथ पांडवों के शिविर में घुस कर धृष्टद्युम्न के साथ पांडवों के पुत्रों का वध कर दिया. इसके बाद वो तीनो पांडवों के कटे हुए शीश लेकर वापस लौट आए. उस समय शिविर में अकेले बचे पार्षदशुद ने इस जनसंहार की खबर पांडवों को दी.
पांडव जितने भी अस्त्र भगवान शिव पर चलाते वो सभी भगवान शिव के शरीर में समा जाते क्योंकि पांडव श्रीकृष्ण के शरण में थे और भगवान शिव हरि भक्तों की रक्षा में स्वयं तत्पर रहते हैं इसलिए शांत स्वरूप शिव ने पांडवों से कहा कि तुम लोग श्रीकृष्ण के उपासक हो इसलिए क्षमा करता हूं अन्यथा तुम सभी वध के योग्य हो. मुझ पर आक्रमण करने का अपराध फल तुम्हें कलियुग मे जन्म लेकर भोगना पड़ेगा. ऐसा कहकर भगवान शिव अदृश्य हो गए.
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पांडव अपने अंश से कलियुग में जन्म लेंगे और अपने पापों को भोग कर श्राप से मुक्ति पाएंगे. युधिष्ठिर, वत्सराज का पुत्र बन कर जन्म लेगा. उसका नाम बलखानी होगा और वो सिरीश नगर का राजा होगा. भीम वीरान के नाम से बनारस में राज करेगा. अर्जुन के अंश से ब्रम्हानंद जन्म लेगा, जो मेरा भक्त होगा. नकुल के अंश से जन्म होगा कनेकोच का, जो रत्ना बानो का पुत्र होगा. सहदेव, भीमसिंह के पुत्र देवसिंह के रूप में जन्म लेगा. दिए हुए श्राप से मुक्ति पाने का रास्ता जानने के बाद पांडवों ने भगवान शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए.
- महाभारत का ये अपराजित पात्र जो आज भी है अमर
महाभारत में द्रोण पुत्र अश्वत्थामा एक ऐसा योद्धा था, जो अकेले के ही दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था। कौरवों की सेना में एक से एक योद्धा थे। पांडवों की सेना हर लिहाज से कौरवों की सेना से कमजोर थी लेकिन फिर भी कौरव हार गए। महाभारत युद्ध के बाद जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक अश्वत्थामा भी थे। अश्वत्थामा को संपूर्ण महाभारत के युद्ध में कोई हरा नहीं सका था। वे आज भी अपराजित और अमर हैं। अश्वत्थामा के जीवन से जुड़े ये रहस्य जिसे जानकर हो जायेगें हैरान
अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्वत्थामा के पास शिवजी के द्वारा दी गई कई शक्तियां थी। वे स्वयं शिव का अंश थे। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जोकि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था। द्रौपदी ने अश्वत्थामा को जीवनदान देत हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया था। अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी। शिव महापुराण के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं
एक बार आचार्य द्रोण अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया। अश्वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्वत्थामा को दे दिया थाउत्तर पाञ्चाल का आधा राज्य लेकर अश्वत्थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्छत्र को बनाया। अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्ठ आचार्य थे। कुरु राज्य में उन्हें भीष्म, धृतराष्ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्मान प्राप्त था।
अश्वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा महाभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहुत ही भयंकर अस्त्र था। अश्वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे। भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं थाअश्वत्थामा का भय जब राक्षसों की सेना ने घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े, तब अकेले ही अश्वत्थामा वहां अड़े रहेउन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला और घटोत्कच को घायल कर दिया। अश्वत्थामा कौरव सेना के प्रधान महारथी थे। कुरुराज ने अपने पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना को ग्यारह महारथियों के सेनापतित्व में संगठित किया था। ये थे- द्रोण, कृप, शल्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बालीक। अतः अश्वत्थामा ग्यारह सेनापतियों में एक प्रमुख स्थान रखता है।
इधर युद्ध में अर्जुन, कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रुपद, धृष्टद्युम्न तथा घटोत्कच आदि लड़ रहे थे। उनके रहते हुए भी उनके देखते ही देखते अश्वत्थामा ने द्रुपद, सुत सुरथ और शत्रुजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों तथा बलानीक, शतानीक, जयाश्व, श्रुताय, हेममाली, पृषध्र तथा चन्द्रसेन जैसे वीरों को रण में मार डाला और युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया था।
महाभारत की इस लड़ाई में अश्वत्थामा द्वारा किए जा रहे इस विध्वंस को देखते हुए पांडव पक्ष में भय और आतंक व्याप्त हो गया था। अब अश्वत्थामा को रोका जाना बहुत जरूरी हो गया था। सभी इस पर विचार करने लगे थे अन्यथा अगले दिन हार निश्चित थी। भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं। दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जाएगा, तो जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से उन्हें रोक देता है। नकुल, युधिष्ठिर के साथ थे व अर्जुन भी वापस युधिष्ठिर के पास आ गए। इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सके। लेकिन द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गयाश, लेकिन युधिष्ठर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बाद फैला दी गई कि अश्वत्थामा मारा गया।
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दियाश्अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथीश्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द हाथी नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा कि मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमिमें आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह समाचार अश्वत्थामा के लिए भयंकर रूप से दुखद था। पिता की छलपूर्वक हत्या के बाद अश्वत्थामा युद्ध के सभी नियमों को तोड़कर ताक में रख देता है। नारायणास्त्र का प्रयोग पिता की छलपूर्वक मृत्यु से दुखी होकर अश्वत्थामा मजबूर होकर नारायणास्त्र का प्रयोग करता है जिसके चलते एक ही झटके में पांडवों सहित उनकी संपूर्ण सेना नष्ट हो जाती। सभी नारायणास्त्र से नष्ट हो जाते लेकिन पांडवों को इस अस्त्र से बचने के लिए तुरंत ही कृष्ण उनसे अपने-अपने अस्त्र त्यागकर रथ से नीचे उतरने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि सभी नारायणास्त्र के सामने आत्मसमर्पण कर लो अन्यथा मारे जाओगे। सभी पांडव और सेना ऐसा ही करती है। समर्पण से ही वे सभी बच सके। जब अश्वत्थामा यह देखता है कि सभी पांडव बच गए हैं तो उसे उस अस्त्र पर संदेह होता है। तब वह अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रयोग करता है लेकिन श्रीकृष्ण के कारण अर्जुन फिर बच जाता है। तब अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध आता है वह अपना धनुष फेंक देता है और अपनी विद्या पर संदेह करने लगता है। अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। इसी दिन अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली गई। लेकिन समझ में नहीं आता कि कैसे पांडवों को मारा जाए
एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने पर एक उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्वत्थामा के मन में भी यही विचार आता है और वह घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझकर उनका सिर काट देता है। इस घटना से धृष्टद्युम्न जाग जाता है तो अश्वत्थामा उसका भी वध कर देता है। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती है। उसके विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच-कर्म हत्यारे ब्राह्मण पुत्र अश्वत्थामा के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा लेते हैं। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकलता है, तब श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन उसका पीछा करता है। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण वह अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है। मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ता है। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन तो अपना अस्त्र वापस ले लेता है लेकिन अश्वत्थामा अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की तरफ मोड़ देता है। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं। अंत में श्रीकृष्ण बोलते हैं, हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो इस प्रकार हिंसा और अभिशाप में क्रोध और विषाद में इस महान विद्वान और दुर्धर्ष वीर की कथा का समापन होता
युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण के सामने प्रश्न रखा था कि अकेले अश्वत्थामा ने इतना भयानक कांड कैसे कर दियाश्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरु पुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौटकर तो नहीं आ सकते अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।
द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उसकी प्रशंसा की। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दंड न देना भी पाप है अतः तुम वही करो जो उचित है। उनकी बात को समझकर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया कृप, हार्दिक्य तथा अश्वत्थामा (द्रौणि) तीनों ने महाविनाश कर यह संवाद दुर्योधन से कहा फिर राजा धृतराष्ट्र को बताया और कहा कि हम तीन हैं और पाण्डव पांच हैं और कोई नहीं बचा। फिर वे तीनों दिशाओं में चले गए। कृप हस्तिनापुर गए। कृतवर्मा द्वारिका तथा द्रौणि (अश्वत्थामा) व्यास के साथ वन चले गए। आज भी भारत के जंगलों में अश्वत्थामा को देखे जाने की घटनाएं दर्ज की जाती है। कभी उसे मध्यप्रदेश के जंगलों में देखा गया तो कभी उड़ीसा के और कभी उत्तराखंड के जंगलों में। अश्वत्थामा आज भी जीवित है और वह कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे।
- क्या आप जानते हो की आज भी जिंदा हे अश्वत्थामा जानिए इस अद्भुत रहस्य के बारेमे ?
महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत में ऐसे अनेक पात्र हैं, जिनके बारे में लोग जानना चाहते हैं। अश्वत्थामा भी उन्हीं में से एक हैं। अश्वत्थामा महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। हिंदू धर्म में जिन 8 महापुरुषों को अमर माना गया है, अश्वत्थामा भी उन्हीं से से एक है। मृत्यु से पहले दुर्योधन ने अश्वत्थामा को कौरवों का अंतिम सेनापति बनाया था। अश्वत्थामा से जुड़ी ऐसी अनेक रोचक बातें हैं, जो बहुत कम लोग जानते हैं। आज हम आपको वही बातें बता रहे हैं।
महादेव के अंशावतार हैं अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार, गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था। अश्वत्थामा महापराक्रमी था। युद्ध में उसने कौरवों का साथ दिया था। मान्यता है कि अश्वत्थामा आज भी जीवित है। इनका नाम अष्ट चिरंजीवियों में लिया जाता है। इस मान्यता से जुड़ा एक श्लोक भी है।
अर्थात- अश्वथामा, बलि, वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।
अश्वत्थामा को अधिक ज्ञान देना चाहते थे द्रोणाचार्य
जब अश्वत्थामा ने चलाया नारायण अस्त्र
युद्ध में जब धृष्टद्युम्न ने छल से द्रोणाचार्य का वध कर दिया था तो अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हुए। अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने पांडवों पर नारायण अस्त्र चलाया। इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों की सेना में खलबची मच गई। अश्वत्थामा ने इस अस्त्र के बारे में दुर्योधन को बताया- यह अस्त्र गुरु द्रोण को स्वयं भगवान नारायण ने दिया था। यह शत्रु का नाश किए बिना नहीं लौटता। नारायणास्त्र से अनेक प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश भी संभव है।
जब श्रीकृष्ण ने देखा कि नारायण अस्त्र से सेना भाग रही है और पांडवों के प्राण भी संकट में हैं, तब उन्होंने कहा – सभी अपने-अपने रथों व अन्य सवारियों से उतरकर, अपने शस्त्रों को नीचे रखकर इस अस्त्र की शरण में चले जाओ। नारायण अस्त्र की शांति का यही एकमात्र उपाय है। सभी ने श्रीकृष्ण की यह बात मान ली। इस प्रकार नारायण अस्त्र का प्रकोप शांत हुआ और पांडवों के प्राण बच गए।
जब श्रीकृष्ण-अर्जुन पर नहीं हुआ आग्नेय अस्त्र का असर
नारायण अस्त्र के विफल होने पर अश्वत्थामा ने आग्नेयअस्त्र का प्रयोग किया। ये अस्त्र भी महाभयंकर था। इसकी अग्नि से पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई। उस अस्त्र के प्रभाव से हवा गरम हो गई। बड़े-बड़े हाथी चारों और चिघांड़ते हुए गिरने लगे। तब अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र चलाया। ब्रह्मास्त्र चलाते ही फिर से हवा गति से चलने लगी। अर्जुन, श्रीकृष्ण व उनके रथ पर भी आग्नेय अस्त्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ।
अर्जुन व श्रीकृष्ण पर आग्नेय अस्त्र का कोई भी प्रभाव न होते देख अश्वत्थामा को बहुत आश्चर्य हुआ। तभी महर्षि वेदव्यास वहां आए और उन्होंने अश्वत्थामा को बताया कि श्रीकृष्ण व अर्जुन भगवान नर-नारायण के अवतार हैं। उन पर किसी भी अस्त्र का प्रभाव नहीं हो सकता। पूर्व समय में भगवान नारायण ने तपस्या करके भगवान महादेव से अनेक वरदान प्राप्त किए हैं। उसी के प्रभाव से उन पर विजय पाना संभव नहीं है। महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अश्वत्थामा रणभूमि से चले गए।
अश्वत्थामा ने मांग लिया कृष्ण का सुदर्शन चक्र
एक बार अश्वत्थामा द्वारिका गए। भगवान कृष्ण ने उसका बहुत स्वागत किया और उसे अतिथि के रूप में अपने महल में ठहराया। कुछ दिन वहां रहने के बाद एक दिन अश्वत्थामा ने श्रीकृष्ण से कहा कि वो उसका अजेय ब्रह्मास्त्र लेकर उसे अपना सुदर्शन चक्र दे दें। भगवान ने कहा ठीक है, मेरे किसी भी अस्त्र में से जो तुम चाहो, वो उठा लो। मुझे तुमसे बदले में कुछ भी नहीं चाहिए।
अश्वत्थामा ने भगवान के सुदर्शन चक्र को उठाने का प्रयास किया, लेकिन वो टस से मस नहीं हुआ। उसने कई बार प्रयास किया, लेकिन हर बार उसे असफलता मिली। उसने हारकर भगवान से चक्र न लेने की बात कही। अश्वत्थामा बहुत शर्मिंदा हुए। वह बिना किसी शस्त्र-अस्त्र को लिए ही द्वारिका से चले गए।
कौरवों का अंतिम सेनापति था अश्वत्थामा
जब भीम ने गदा युद्ध में दुर्योधन की जांघें तोड़ दी और मरने के लिए छोड़ दिया, तब वहां अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा आए। दुर्योधन को उस अवस्था में देख अश्वत्थामा ने प्रण किया कि वह पांडवों से बदला लेगा। दुर्योधन के कहने पर कृपाचार्य ने अश्वत्थामा को सेनापति बनाया। अश्वत्थामा ने सोचा कि रात के समय पांडव आदि वीर विजय प्राप्त कर अपने-अपने शिविरों में आराम कर रहे होंगे। अत: इसी अवस्था में उनका वध करना संभव है। (श्रीकृष्ण व पांडव उस समय कौरव शिविर में थे, ये बात अश्वत्थामा नहीं जानता था)। कृपाचार्य ने अश्वत्थामा से कहा कि रात्रि में सोते हुए वीरों पर प्रहार करना नियम विरुद्ध है, लेकिन अश्वत्थामा ने कृपाचार्य की बात नहीं मानी। अंत में कृपाचार्य व कृतवर्मा भी अश्वत्थामा का साथ देने के लिए राजी हो गए।
महादेव से युद्ध किया था अश्वत्थामा ने
पांडवों से बदला लेने के उद्देश्य से अश्वत्थामा जब रात के समय उनके शिविर तक पहुंचा। तो उसने देखा कि पांडवों के शिविर के बाहर एक विशालकाय पुरुष दरवाजे पर खड़ा है। उसने बाघ तथा हिरण की खाल पहन रखी है। उसकी अनेक भुजाएं हैं और उन भुजाओं में तरह-तरह के शस्त्र हैं। उसके मुख से आग की लपटें निकल रही हैं।
उस पुरुष के तेज से हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। वह स्वयं भगवान महादेव ही थे। महादेव के उस भयंकर रूप को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं और उन पर दिव्यास्त्रों से प्रहार करने लगा, लेकिन उन अस्त्रों का महादेव पर कोई असर नहीं हुआ। यह देख अश्वत्थामा भगवान शंकर की उपासना करने लगा और स्वयं की बलि देने लगा।
तब महादेव ने अश्वत्थामा से कहा कि श्रीकृष्ण ने तपस्या, नियम, बुद्धि व वाणी से मेरी आराधना की है। इसलिए उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा भी मैं उन्हीं के लिए कर रहा था। किंतु कालवश अब ये निस्तेज हो गए हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है। ऐसा कहकर महादेव ने अश्वत्थामा को एक तलवार दी और स्वयं को अश्वत्थामा के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार अश्वत्थामा अत्यंत तेजस्वी हो गया।
अश्वत्थामा ने किया था द्रौपदी के पुत्रों का वध
महादेव से शक्ति प्राप्त कर अश्वत्थामा ने पांडवों के शिविर में प्रवेश किया। अश्वत्थामा ने सबसे पहले द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न को पीट-पीट कर मार दिया। इसके बाद अश्वत्थामा ने उत्तमौजा, युधामन्यु, शिखंडी आदि वीरों का भी वध कर दिया। उसके बाद अश्वत्थामा ने महादेव की तलवार से द्रोपदी के सोते हुए पुत्रों का भी वध कर दिया।
श्रीकृष्ण ने दिया था अश्वत्थामा को श्राप
जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।
अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी से बात नहीं कर पाओगे। तुम्हारे शरीर से पीब व रक्त बहता रहेगा। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।
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